सोमवार 10 नवंबर 2025 - 06:45
महिलाओं का इतिहास | अल्लामा तबातबाई की नज़र में महिलाओं के अपमान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (भाग -1)

हौज़ा / इस्लामी क़ानून इंसानी तज़रबों पर आधारित नहीं हैं, बल्कि इंसान की असली भलाई (मस्लहत) और बुराइयों पर क़ायम हैं। इन क़ानूनों की अहमियत समझने के लिए ज़रूरी है कि हम पिछली और मौजूदा क़ौमों के हालात का जायज़ा लें, ताकि इस्लाम की बरतरी साफ़ तौर पर सामने आ जाए। इसी वजह से इस्लाम में औरत की पहचान, उसकी क़द्र व मर्तबा, हक़ूक़ और समाज में दर्जा समझना बहुत जरूरी है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, तफ़सीर-ए-अलमीज़ान के लेखक मरहूम अल्लामा तबातबाई (र) ने सूरा बकरा की आयत 228 से 242 के तहत इस्लाम और अन्य क़ौमों व मज़हबों के नज़रिये से औरत के हक़, उसकी शख्सियत और समाज में उसके दर्जे पर विस्तार से चर्चा की है। नीचे इसी विषय का पहला हिस्सा दिया जा रहा है।

इलाही क़ानून की बुनियाद:
चूँकि इस्लाम का क़ानून बनाने वाला अल्लाह है, इसलिए ये क़ानून इंसानी तज़रबों पर आधारित नहीं होते कि पहले लागू किए जाएँ, फिर उनमें कमी दिखाई दे तो उन्हें बदल दिया जाए।

इस्लामी क़ानूनों की बुनियाद इंसान के असली भले और बुरे की हकीक़ी पहचान पर है। और क्योंकि ख़ुदा ही इन हक़ीक़तों को पूरी तरह जानता है, इसलिए उसके हुक्म हमेशा मुकम्मल और हमेशा रहने वाले हैं।

लेकिन चूँकि चीज़ों की असलियत उनके उलट पहलू से पहचानी जाती है, इसलिए इलाही क़ानूनों की क़ीमत और अहमियत समझने के लिए ज़रूरी है कि हम दूसरी क़ौमों के तौर-तरीक़ों, क़ानूनों और नज़रियों पर भी निगाह डालें। साथ ही यह भी देखें कि इंसानी कामयाबी और खुशहाली असल में किन बुनियादों पर कायम है।

जब हम “इंसानी तज़रबे और ख़ुदाई रहनुमाई” दोनों का मुकाबला करेंगे, तो इस्लाम के क़ानून की ज़िंदा रूह हमें बाकी क़ौमों और मज़हबों के निज़ामों के बीच साफ़ नज़र आएगी।

क़ौमों की तारीख़ और उनके तमद्दुन का अध्ययन भी इसी लिए जरूरी है ताकि हमें इस्लामी तालीमात की बरतरी और हक़ीक़त का एहसास हो सके – न कि हम उनसे कोई बेहतर क़ानून तलाश करें।

बुनियादी बातें जिन पर बहस है:
अल्लामा तबातबाई (र) इस विषय को चार पहलुओं से बयान करते हैं:

  1. इस्लाम में औरत की पहचान और असलियत क्या है, और यह मर्द से कितनी मिलती या अलग है?

  2. औरत का समाज में क्या दर्जा है और इंसानी ज़िंदगी में उसका क्या किरदार है?

  3. इस्लाम ने औरत के लिए कौन से हक़ और अहकाम तय किए हैं?

  4. इन क़ानूनों की तशरीअ (बनावट) और बुनियाद किन उसूलों पर है?

अल्लामा (र) लिखते हैं कि इन बहसों को अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि हम इस्लाम से पहले की क़ौमों की तारीख़ देखें और जानें कि अलग-अलग क़ौमें – चाहे विकसित हों या पिछड़ी – औरतों से कैसा बर्ताव करती थीं।

पिछड़ी क़ौमों में औरत की हालत:
क़दीम और वहशी क़ौमें, जैसे अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, ओशियान के टापू, क़दीम अमरीका और इसी तरह के दूसरे क़बीलों में, औरत की ज़िंदगी मर्दों के मुक़ाबले में पालतू जानवरों से कुछ अलग न थी।
मर्द उनके साथ वही व्यवहार करते थे जो अपने मवेशियों के साथ करते हैं।

इंसान अपनी इस्तिमारी और लालची फितरत के चलते खुद को यह हक़दार समझता था कि जैसे वह गाय, ऊँट, घोड़े और बकऱियाँ रखता है, वैसे ही औरत पर भी उसका मालिकाना हक़ है।

वह जानवरों की तरह ही औरत को भी फ़ायदे और सेवा का ज़रिया समझता था – जैसे जानवरों से वह बाल, दूध, गोश्त, हड्डी, चमड़ा वगैरह लेता था।

वह जानवरों के लिए तबेले बनाता, उनकी नस्ल बढ़ाने के लिए नर-मादा को मिलाता, उनसे बोझ उठवाता, खेतों में काम लेता और शिकार में इस्तेमाल करता।

ये तमाम जानवर वही सहूलियत पाते जो उनके मालिक के फ़ायदे में रुकावट न बने, और उसी तरह औरत भी मर्द की ज़िंदगी का बस एक ज़रियाए आश्रित हिस्सा समझी जाती थी, न कि एक खुदमुख़्तार और इज़्ज़तदार इंसान।

जानवरों के साथ व्यवहार:
अल्लामा (र) आगे फ़रमाते हैं कि इन पिछड़े समाजों में इंसान का जानवरों के साथ सुलूक इतना ज़ालिमाना था कि अगर उनको ज़बान दी जाती तो वो अपने मालिकों के जुल्म पर चिल्ला उठते।
कई जानवर बग़ैर किसी गुनाह के सताए जाते, और आज भी ऐसा होता है। कोई उनका हक़ नहीं देता।

कभी कोई जानवर बस ख़ूबसूरत होने की वजह से शाही ज़िंदगी जीता है, महलों में रहता और उम्दा खाना पाता है, जबकि दूसरा – जैसे गधा या खच्चर – सारी उम्र मेहनत से गुज़ार देता है।

इन जानवरों के पास कोई अपना हक़ नहीं होता; उनकी सूरत-ए-हाल पूरे तौर पर मालिक की चाहत पर निर्भर रहती है।

अगर कोई किसी का जानवर जख्मी कर दे, तो सज़ा इसलिए नहीं मिलती कि उसने एक मख़लूक़ पर ज़ुल्म किया, बल्कि इसलिए कि उसने मालिक का माल नुक़सान किया।

यही सोच इंसान के दिमाग़ में बैठ गई थी — कि जानवर और औरत दोनों की ज़िंदगी इंसान की ज़िंदगी के ताबे (आश्रित) है, और उनकी कोई अलग पहचान या हैसियत नहीं।

(जारी है...)
माख़ूज़: तर्जुमा तफ़सीर-ए-अलमीज़ान, जिल्द 2, सफ़ा 395

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